Sunday, 14 October 2007

अवसरवादी राजनीती

भारतीय राजनीती में सौदेबाजी का नजारा किसी शब्जी विक्रेता और ग्राहक के बीच के मोल भाव से कम नहीं होता। जब संप्रग की सरकार बन रही थी तो उस समय वामपंथियों के बाहरी समर्थन ने इसे बहुमत दिलवाया था जबकि कांग्रेस और वामपंथी केरल बंगाल और त्रिपुरा में सीधे एक दुसरे के खिलाफ थे और जब सरकार बनाने की बारी आई तो दोनो गले मिल गए जैसे कि सुबह के बिछुरे शाम को घर पर एक साथ आए हो । कुछ दिनों तक वाम और कांग्रेस एक ही गले से दो आवाज बोल रहे थे किन्तु धीरे धीरे कांग्रेस का अपना एजेंडा खुलता चला गया, वाम के सुर भी बदलने लगे। नटवर सिंह की जिस तरह विदाई हुई क्योंकि अमेरिका विरोधी मानसिकता के कारन वामपंथी इन्हें अपने अनुकूल मानते थे और वाम धारा समर्थक मणिशंकर अय्यर से पेट्रोलियम मंत्रालय लिया जाना कांग्रेस द्वारा वामपंथियों को परोक्ष चुनौती थी कि मेरा अपना एजेंडा है जो आपके दवाब पर नहीं चलेगा। फिर भारत अमेरिका परमाणु समझौता जब अपनी सफ़लता की राह पर अग्रसर रहा तो अब वामपंथियों ने इसे सीधे अपने विचारधारा और नीति पर चोट माना और समर्थन वापसी कीं बात की बयार चला दीं।
ये सब तो हुआ नाटक का दर्शक पहलू किन्तु जिस मुद्दे को उठाकर कांग्रेस सत्ता में आयी और वामपंथियों ने अपने राज्य में जनता से अपार समर्थन पाकर लोकसभा सदस्य जीते , क्या उस मुद्दे का समाधान हुआ ? नहीं , क्योंकि जिस कहानी का मंचन किया जाना था वह गुम हो गया। भारत गेहूँ निर्यातक से आयातक बन गया वह भी अपने किसानो को दिए जाने वाले मुल्य से दोगुने पर। बेरोजगारी दूर करने के उपायों के बदले सिर्फ हवाई घोषणा की गई और पिछरों को अच्छी शिक्षा उपलब्ध कराने के बदले आरक्षण का कार्ड खेलकर जातिवाद की हवा को और टूल दिया गया। बेचारे मुस्लमान तो सिर्फ समिती और आयोग के चक्कर में ही रह गए। पीछले तीन वर्षों में मंहगाई तीन गुनी बढ़ी किन्तु मुद्रास्फीति को चार प्रतिशत से कम दिखाया जाता है अखिर आम जनता को एस इस सरकार प्रायोजित मुद्रा स्फीति से क्या मतलब । उसे तो आता चावल का भाव उसकी कमाई के अस्तित्व की जानकारी दे देते हैं। आन्तरिक उग्रवाद तो अब अपनी सीमा लाँघ चूका है । देश का २०० जिला नक्सल पीड़ित है। किसानो की आत्महत्या रोकने के उपाय के वादों के साथ यह सरकार सत्ता में आई किन्तु किसान मृत्यु दर बढती ही जा रही। कहने को तो प्रधानमंत्री के अधीन उसका मंत्री होता है किन्तु अपने मंत्रियों पर प्रधानमंत्री की थोरी सी भी चल पाती है? ये सारे मुद्दे हैं जिसका जवाब जनता मांगेगी। नेता बदलने से आम जनता की मांग नहीं बदल जाती। परमाणु मुद्दे पर प्रधानमंत्री का ताजा बयान देश को गुमराह करने वाला है । कल तक परमाणु समझौता पर सरकार की बलि तक देने वाले आज यह बोल रहे की अब इस समझौते के ऐवज में सरकार नहीं जायेगी । शायद कांग्रेस गुजरात और हिमाचल के चुनाव परिणाम तक रूक कर अपनी स्थिती को देखना चाहे । यदी अभी चुनाव हो जाये तो सत्ता पक्ष की हालत क्या होगी?

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